ख़िरद वाला भी अपने आप से बेगाना आता है जो उन की बज़्म से आता है वो दीवाना आता है न जोश-ए-मय न कैफ़-ए-नग़्मा-ए-रिंदाना आता है इक ऐसा वक़्त भी ऐ साक़ी-ए-मय-ख़ाना आता है बयान-ए-दर्द दिल को वाइ'ज़-ए-फ़रज़ाना आता है वो क्या जाने हक़ीक़त उस को तो अफ़्साना आता है मैं चलता तो हूँ घर से जानिब-ए-मस्जिद मगर नासेह क़दम रुक जाते हैं रस्ते में जब मय-ख़ाना आता है ख़िरद वालों से जब हल मसअलों के हो नहीं पाते तो फिर इस काम की ख़ातिर कोई दीवाना आता है बहुत मुश्किल है इन से बच के रूदाद-ए-अलम कहना कि अफ़्साने से पहले साहब-ए-अफ़्साना आता है न जाने कौन सी लज़्ज़त है इस सोज़िश में ऐ 'आसी' कि पेश-ए-शम्अ जलने के लिए परवाना आता है