ख़िर्मन-ए-जाँ के लिए ख़ुद ही शरर हो गए हम ख़ाकसारी जो बढ़ी ख़ाक-बसर हो गए हम अपने होने का यक़ीं आ गया बुझते बुझते बे-कराँ शब में जो इमकान-ए-सहर हो गए हम ना-मुरादी में नशात-ए-ग़म इम्काँ था अजब हम कभी शाद न हो पाते मगर हो गए हम हम नहीं कुछ भी मगर मारका-ए-इश्क़ की ख़ैर जीत मक़्सूम हुई उस की जिधर हो गए हम जादा-ए-इश्क़ तिरा हक़ तो अदा किस से हुआ ख़ैर इतना है कि आग़ाज़-ए-सफ़र हो गए हम ज़िंदगी ऐसे गुज़ारी कि सुबुक सर न हुए यानी इस दौर में जीने का हुनर हो गए हम तेशा भी हम थे यक़ीं हम थे तो ज़िंदाँ क्या चीज़ यही होना था सो दीवार में दर हो गए हम दस्त-ए-क़ुदरत हमें कुछ और है बनना सो बना छोड़ ये ज़िक्र कि क़तरे से गुहर हो गए हम