ख़ज़ाना लुत्फ़ का जैसे नफ़स नफ़स में था अजब सुरूर का आलम मेरी हवस में था वहाँ भी लोग उजालों पे नाज़ करते थे हर आफ़्ताब-ए-जहाँ तीरगी के बस में था फिरे भी दिन तो उसे पत्थरों के पाँव मिले वो एक फूल जो मुद्दत से ख़ार-ओ-ख़स में था थकन नहीं थी ये था बे-हिसी का सन्नाटा अजीब कर्ब सा इक नाला-ए-जरस में था सुकूत-ए-क़ल्ब का आख़िर शिकार हो ही गया वो एक शख़्स जो ता-उम्र पेश-ओ-पस में था सभी को तीलियाँ अपनी अज़ीज़ थीं 'असरार' कि जो परिंद था ख़ुद-साख़्ता क़फ़स में था