ख़ाक हूँ तूर समझ और जिला दे मुझ को ऐ ख़ुदा अपनी तजल्ली की ज़िया दे मुझ को मौला मज्ज़ूब मिनल्लाह बना दे मुझ को इश्क़-ए-सादिक़ की यूँ मेराज करा दे मुझ को ऐसी कोई भी न ऐ यार दुआ दे मुझ को मर ही जाऊँ कोई ऐसी तो सज़ा दे मुझ को रोज़-ए-महशर तो अभी दूर है मेरे अल्लाह कर कोई मो'जिज़ा और ख़ुद से मिला दे मुझ को नहीं करना है मुझे इश्क़-ए-मजाज़ी किसी से मौला इश्क़-ए-अज़ली करना सिखा दे मुझ को आज रोते हुए मैं ने तो उसे कह दिया है कि मैं दरवेश सिफ़त हूँ तू भुला दे मुझ को तंग आने लगा हूँ ज़िंदगी की उलझनों से अपनी क़ुदरत से ख़ुदा राह-ए-फ़ना दे मुझ को दर्द एहसास ख़ुशी जैसी कोई चीज़ न हो तू ही तू हो ब-ख़ुदा ऐसी फ़ज़ा दे मुझ को तेरा एहसास जिलाता है मिरा दामन-ए-यार भूल जाऊँ तुझे तौफ़ीक़-ए-ख़ुदा दे मुझ को मेरी मंज़िल का पता पूछते हैं मुझ से लोग कुछ तो कर ऐसा तमाशा ही बना दे मुझ को