ख़ाकसारी कीजिए या शहरयारी कीजिए हम ग़रीबों में कुछ अपना फ़ैज़ जारी कीजिए जिन से कुछ हासिल नहीं ताबीर-ख़्वाही के सिवा ऐसे ख़्वाबों में बसर क्यूँ रात सारी कीजिए जो हमारा हाल है उस से अलग उन का नहीं साकिनान-ए-शहर से क्या पर्दा-दारी कीजिए आप जो कहते हैं वो करते नहीं मालूम है प्यार कर सकते नहीं बातें तो प्यारी कीजिए आएँ भी तशरीफ़ ले आएँ यही दस्तूर है बैठ कर मेरे सिरहाने ग़म-गुसारी कीजिए चूम कर हम छोड़ देंगे ये गुमाँ सच्चा नहीं आप अपनी चाह का पत्थर न भारी कीजिए हम यूँ ही मर जाएँगे काफ़ी है इशारा आप का आँख को ख़ंजर न अबरू को कटारी कीजिए कुश्त-गान-ए-ख़ंजर तस्लीम कहलाते हैं क्यूँ कुछ तड़प दिखलाइए कुछ बे-क़रारी कीजिए हम बुरे हैं या भले महसूस ख़ुद को भी न हो थोड़ी अपने आप से भी होश्यारी कीजिए सर्कशान-ए-इश्क़ फिर आमादा-ए-फ़रियाद हैं फिर कोई फ़रमान-ए-क़त्ल-ए-आम जारी कीजिए