ख़ला-ए-फ़िक्र का एहसास अर्ज़-ए-फ़न से मिला बरहनगी में नया लुत्फ़ पैरहन से मिला क़दम क़दम पे उगे ज़ख़्म-ए-आरज़ू भी हज़ार हज़ार रंग-ए-तमाशा भी इस चमन से मिला बढ़ा के हाथ कहीं उलझनें ही छीन न लें वो जाम भी जो मुझे शाम-ए-अंजुमन से मिला सहर को बे-खिली कलियों में ढूँढती है किरन जो लुत्फ़-ए-जल्वा लजाई हुई दुल्हन से मिला उसी के सोग में बैठा हुआ हूँ मुद्दत से जो एक ज़ख़्म रफ़ीक़ान-ए-हम-वतन से मिला गुरूर-ए-ख़ुश-नज़री नाज़िश-ए-अक़ीदा-ओ-रंग हज़ार रोग उसी ज़ोम-ए-मा-ओ-मन से मिला हुजूम-ए-यास में तहज़ीब-ए-नफ़्स का आहंग तिरी ही नर्म-ख़िरामी के बाँकपन से मिला वो हौसला जो नई राह की तलाश में है गली गली में भटकती हुई किरन से मिला हर एक हाल में जीने का जगमगाने का शौक़ अँधेरी शब में सितारों की अंजुमन से मिला इशारा फ़िक्र को महमेज़ हश्र-परवर का ख़ता मुआ'फ़ हो तेरे ही बाँकपन से मिला अब इस शुऊ'र को महसूर-ए-ज़ात कैसे करूँ शुऊ'र ज़ात कि 'ज़ैदी' बड़े जतन से मिला