ख़ाली आशिक़ से कभी कूचा-ए-जानाँ न रहा कौन सी शब वो थी जिस में कोई गिर्यां न रहा देखिए नाख़ुन-ए-वहशत के सबब आशिक़ का तार-ए-दामाँ न रहा तार-ए-गरेबाँ न रहा शैख़ क्या वा'ज़ सुनाता है दिखाने के लिए दिल में तस्वीर-ए-सनम है तिरा ईमाँ न रहा हो गया साथ दिल-ए-ज़ार के वो भी रुख़्सत माया-ए-ज़ीस्त जो अपना था वो अरमाँ न रहा हम-सफ़ीरो न कहो नग़्मा-ज़नी को मुझ से अब चली बाद-ए-ख़िज़ाँ और गुल-ए-ख़ंदाँ न रहा रुख़ दिखाते ही किया महव-ए-तमाशा तू ने कब तिरा शेफ़्ता आईना सा हैराँ न रहा अश्क-ए-दीदा तो हुए ख़ुश्क 'जमीला' कह दो ख़िज़्र तुम आए तो क्या चश्मा-ए-हैवाँ न रहा