ता'बीर से महरूम तिरे ख़्वाब बहुत थे सादा सी कहानी थी मगर बाब बहुत थे आ लगती किनारे से मिरी कश्ती-ए-जाँ भी शायद कि मिरे पाँव में गिर्दाब बहुत थे बे-नाम हुए नाम की तकरीम के हाथों पहचानता क्या कोई कि अलक़ाब बहुत थे अफ़्सोस तमव्वुज उन्हें साहिल पे न लाया अनमोल गुहर वर्ना तह-ए-आब बहुत थे हर लहज़ा बदलती हुई रुत बस में नहीं थी जोबन पे थी बरसात तो शादाब बहुत थे कुछ हम भी बहुत से गए नमनाक हवा में कुछ तुम भी तो आमादा-ए-ईजाब बहुत थे हम अपने ही पाबंद नहीं थे कभी 'यासिर' उठ आए कि तक़रीब के आदाब बहुत थे