हर शे'र को गुलाब किया क्या ग़लत किया हाँ तेरा इंतिख़ाब किया क्या ग़लत किया रौंदा नहीं कभी किसी जुगनू को ज़ेर-ए-पा ज़र्रे को आफ़्ताब किया क्या ग़लत किया लब पर हर एक शख़्स के थी मस्लहत की मोहर हम ने ही कुछ ख़िताब किया क्या ग़लत किया जो मावरा-ए-ज़ेहन-ए-फ़क़ीहाँ था वो गुनाह उस का भी इर्तिकाब किया क्या ग़लत किया कब तक पिसेंगे ज़ुल्म की चक्की में मेरे लोग एलान-ए-इंक़लाब किया क्या ग़लत किया जो दुश्मन-ए-अवाम थे नफ़रत उन्हीं से की और इश्क़ बे-हिसाब किया क्या ग़लत किया इस आस में कि सब को मयस्सर हो सुख की नींद क़ुर्बां हर एक ख़्वाब किया क्या ग़लत किया आया अदब बरा-ए-अदब का ख़याल जब लिखने का बंद बाब किया क्या ग़लत किया 'ख़ालिद' रहे न सब की तरह बस क़लम क़ुली ज़ुल्मत को बे-नक़ाब किया क्या ग़लत किया