ख़लिश-ए-हिज्र-ए-दाइमी न गई तेरे रुख़ से ये बे-रुख़ी न गई पूछते हैं कि क्या हुआ दिल को हुस्न वालों की सादगी न गई सर से सौदा गया मोहब्बत का दिल से पर उस की बे-कली न गई और सब की हिकायतें कह दीं बात अपनी कभी कही न गई हम भी घर से 'मुनीर' तब निकले बात अपनों की जब सही न गई