ख़ामोश कली सारे गुलिस्ताँ की ज़बाँ है ये तर्ज़-ए-सुख़न आबरू-ए-ख़ुश-सुख़नाँ है जो बात कि ख़ुद मेरे तकल्लुम पे गराँ है वो तेरी समाअ'त के तो क़ाबिल ही कहाँ है हर ज़र्रा पे है मंज़िल-ए-महबूब का धोका पहुँचे कोई इस बज़्म तक उन का ही कहाँ है इंसान ने असरार-ए-जहाँ फ़ाश किए हैं सोया हुआ ख़ुर्शीद है ज़र्रा निगराँ है 'फ़ितरत' दिल-ए-कौनैन की धड़कन तो ज़रा सुन ये हज़रत-ए-इंसाँ ही की अज़्मत का बयाँ है