ख़मोशी बस ख़मोशी थी इजाज़त अब हुई है इशारों को तिरे पढ़ने की जुरअत अब हुई है अजब लहजे में करते थे दर-ओ-दीवार बातें मिरे घर को भी शायद मेरी आदत अब हुई है गुमाँ हूँ या हक़ीक़त सोचने का वक़्त कब तक ये हो कर भी न होने की मुसीबत अब हुई है अचानक हड़बड़ा कर नींद से मैं जाग उट्ठा हूँ पुराना वाक़िआ' है जिस पे हैरत अब हुई है यही कमरा था जिस में चैन से हम जी रहे थे ये तन्हाई तो इतनी बे-मुरव्वत अब हुई है बिछड़ना है हमें इक दिन ये दोनों जानते थे फ़क़त हम को जुदा होने की फ़ुर्सत अब हुई है अजब था मसअला अपना अजब शर्मिंदगी थी ख़फ़ा जिस रात पर थे वो शरारत अब हुई है मोहब्बत को तिरी कब से लिए बैठे थे दिल में मगर इस बात को कहने की हिम्मत अब हुई है