ख़मोशी उँगलियाँ चटख़ा रही है तिरी आवाज़ अब तक आ रही है दिल-ए-वहशी लिए जाता है लेकिन हवा ज़ंजीर सी पहना रही है तिरे शहर-ए-तरब की रौनक़ों में तबीअ'त और भी घबरा रही है करम ऐ सरसर-ए-आलाम-ए-दौराँ दिलों की आग बुझती जा रही है कड़े कोसों के सन्नाटे हैं लेकिन तिरी आवाज़ अब तक आ रही है तनाब-ए-ख़ेमा-ए-गुल थाम 'नासिर' कोई आँधी उफ़ुक़ से आ रही है