ख़ामुशी में ही ला-जवाब न था मुस्कुराहट का भी हिसाब न था मैं उसे हर्फ़ हर्फ़ पढ़ता गया वो अगरचे खुली किताब न था एक मुद्दत से सो रहे हैं लोग फिर भी आँखों में कोई ख़्वाब न था झील में रात भर था क्या रक़्साँ तेरा पैकर तो ज़ेर-ए-आब न था मरने वालों की थी जज़ा की वईद जीने वालों का एहतिसाब न था ज़र्फ़ के इम्तिहाँ में अब की बार एक भी शख़्स कामयाब न था यूँ तो बेहद सख़ी था दिल का 'अमीर' वो मगर साहब-ए-निसाब न था