ख़ंजर ने ही छोड़ा था न मरने में गुमाँ और क्यों लाए मिरे क़त्ल को वो तीर-ओ-कमाँ और कम-ज़र्फ़ कभी जोश-ए-मोहब्बत में लबों पर करते हैं हिमाक़त तो उभरता है निशाँ और बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर आ के जहाँ सोते हों डंगर क्या मेरे मकाँ सा है कोई ख़स्ता मकाँ और डॉक्टर ने कहा मुँह में मिरे आला लगा कर आँ आँ से मियाँ कीजिए बाहर को ज़बाँ और हम भी तो ज़रा देखें बहुत कहते हैं 'ग़ालिब' ले आएँगे बाज़ार से जा कर दिल-ओ-जाँ और हैं और भी दुनिया में हज़ल-गो बहुत अच्छे कहते हैं कि है 'राज़' का अंदाज़-ए-बयाँ और