ख़राब हूँ कि जुनूँ का चलन ही ऐसा था कि तेरा हुस्न मिरा हुस्न-ए-ज़न ही ऐसा था हर एक डूब गया अपनी अपनी यादों में कि तेरा ज़िक्र सर-ए-अंजुमन ही ऐसा था बहाना चाहिए था जू-ए-शीर-ओ-शीरीं का कोई समझ न सका तेशा-ज़न ही ऐसा था हद-ए-अदब से गुरेज़ाँ न हो सका कोई कि सादगी में तिरा बाँकपन ही ऐसा था रफ़ाक़तों में भी निकलीं रिक़ाबतें क्या क्या मैं क्या कहूँ तिरा रू-ए-सुख़न ही ऐसा था जहाँ भी छाँव मिली दो-घड़ी को बैठ रहे दयार-ए-ग़ैर कहाँ था वतन ही ऐसा था थी दाग़ दाग़ मिरे क़ातिलों की ख़ुश-पोशी कि उम्र-भर मिरे सर पर कफ़न ही ऐसा था मुझे तो यूँ लगा तरशा हुआ था शो'ला कोई बदन ही ऐसा था कुछ पैरहन ही ऐसा था हक़ीक़तों में भी थी 'शाज़' रंग-आमेज़ी क़सीदा-ए-लब-ओ-आरिज़ का फ़न ही ऐसा था