ख़राब-हाल हूँ हर हाल में ख़राब रहा ख़ुशी में भी ग़म-ए-दिल का सा इज़्तिराब रहा नज़ारा-ए-रुख़-ए-ज़ेबा की याँ किसे फ़ुर्सत नक़ाब रुख़ पे रही या वो बे-नक़ाब रहा तरब की बज़्म में जा कर करेगा क्या कोई न वो पियाला न वो मय न वो शबाब रहा नवा-ए-शौक़ निकलती है अब भी दिल से मगर न वो उपज न वो महफ़िल न वो रबाब रहा हर एक चीज़ की दुनिया में हद मुक़र्रर है मगर ये रंज ज़माना का बे-हिसाब रहा ख़याल-ओ-ख़्वाब मसर्रत की इक तवक़्क़ो' पर तमाम-उम्र मुझे इंतिज़ार-ए-ख़्वाब रहा