ख़राब-हाल वफ़ा को रुलाए जाते हैं नज़र चुराए हुए मुस्कुराए जाते हैं वफ़ा-शिआ'र सही ग़ैर मुझ से क्यों कहिए ये रोज़ किस लिए क़िस्से सुनाए जाते हैं वफ़ा की क़दर तिरी अंजुमन में क्यों होती फ़रेब-ए-ग़ैर के नक़्शे जमाए जाते हैं तुम अपने हुस्न पे नाज़ाँ हो और अहल-ए-नज़र दिल-ए-ख़राब की क़ीमत बढ़ाए जाते हैं किसे ख़बर है कि अंजाम-ए-आरज़ू क्या हो नसीब-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा आज़माए जाते हैं कभी तो इश्क़-ओ-हवस में भी चाहिए ये तमीज़ इसी उम्मीद पे सदमे उठाए जाते हैं ख़िराम-ए-नाज़ की हश्र-आफ़रीनियाँ तौबा क़दम क़दम पे क़यामत उठाए जाते हैं अब उन की याद को क्यों कर भुलाइए दिल से कि रेशा रेशा में वो तो समाए जाते हैं सुना है अब तो हैं 'रज़्मी' भी बारयाब-ए-जमाल उस अंजुमन में हमेशा बुलाए जाते हैं