ख़ता होने लगे थे राद से औसान मेरे अजब शोर-ए-क़यामत में घिरे थे कान मेरे फ़ज़ा में एक लहज़े के लिए जब बर्क़ चमकी अँधेरी रात से तय हो गए पैमान मेरे लहू जमने के नुक़्ते पर जो पहुँचा तो अचानक उलट डाले हवा ने मुझ पे आतिश-दान मेरे मैं मिट्टी आग और पानी की सूरत मुंतशिर था फिर इक दिन सब अनासिर हो गए यक-जान मेरे