ख़त्म इस तरह नज़ा-ए-हक़-ओ-बातिल हो जाए इक तरफ़ दोनों जहाँ एक तरफ़ दिल हो जाए दिल में वो शोरिश-ए-जज़्बात वो गर्मी न रही अब ये शायद निगह-ए-दोस्त के क़ाबिल हो जाए जानता हूँ कि वफ़ा जी से गुज़रना है मगर यूँ न दे तअन कि जीना मुझे मुश्किल हो जाए दो-जहाँ तर्क-ए-मोहब्बत में किए तेरे लिए और बेज़ार जो तुझ से भी मिरा दिल हो जाए क़द्र-ए-इंसाँ है अभी बज़्म-ए-अदम में 'सीमाब' क्यूँ वो दुनिया में रहे जो किसी क़ाबिल हो जाए