ख़ूब है इश्वा ये उस का ये इशारत उस की मेरे हाथों की लकीरें हैं इबारत उस की वस्ल की रात के इक आख़िरी मोती की तरह ख़्वाब बनती हुई आँखों में बशारत उस की उस के दामन पे नहीं पड़ते लहू के धब्बे तेग़ उठाए वो तो फिर देखो महारत उस की ख़ाम अशिया की तरह बिखरा पड़ा है सर-ए-राह ज़ेर-ए-तअमीर तमाशा है इमारत उस की ना-शनासी के ख़राबे में सफ़र है उस का ज़िंदा रहने की तमन्ना है जसारत उस की दाग़ तश्कीक के धो देती है पेशानी से मोजज़ा बनती है जब 'रम्ज़' तहारत उस की