ख़ुद अपने घर में हैं इस तरह आज आए हुए कि जैसे घर में किसी के हों हम बुलाए हुए कि जैसे अब कोई ख़ुर्शीद आ ही जाएगा हैं अपने घर के अँधेरों से लौ लगाए हुए ख़ुदा करे दर-ओ-दीवार कान रखते हों ज़माना गुज़रा है रूदाद-ए-ग़म सुनाए हुए इन आँधियों में न जाने किधर से आ जाओ मैं जा रहा हूँ हर इक सू दिया जलाए हुए गराँ गुज़रती है अब शहर की हर इक आवाज़ सुना रहे हैं वो क़िस्से जो हैं सुनाए हुए हो जैसे जुर्म-ए-मोहब्बत में मेरी नाकामी हर इक से रहता हूँ 'नूरी' नज़र बचाए हुए