ख़ुद अपनी आग में सारे चराग़ जलते हैं ये किस हवा से हमारे चराग़ जलते हैं जहाँ उतरता है वो माहताब पानी में वहीं किनारे किनारे चराग़ जलते हैं तमाम रौशनी सूरज से मुस्तआ'र नहीं कहीं कहीं तो हमारे चराग़ जलते हैं तुम्हारा अक्स है या आफ़्ताब का परतव ये ख़ाल-ओ-ख़द हैं कि प्यारे चराग़ जलते हैं अजीब रात उतारी गई मोहब्बत पर हमारी आँखें तुम्हारे चराग़ जलते हैं मिरी निगाह से रौशन निगार-खाना-ए-हुस्न मिरे लहू के सहारे चराग़ जलते हैं न जाने कौन सी मंज़िल है मुंतज़िर 'आज़र' कि रहगुज़र में सितारे चराग़ जलते हैं