ख़ुद अपनी महफ़िल में इस क़दर क्यूँ है एहतिमाम-ए-हिजाब तेरा यहाँ तो मौजूद तू ही तू है कहाँ है कोई जवाब तेरा कभी तो सहरा के दामनों पर कभी चमन की लताफ़तों पर जलाल बन कर जमाल बन कर बरस रहा है शबाब तेरा सियाह बादल उमड उमड कर वो आ रहे हैं बरस रहे हैं उरूस-ए-फ़ितरत नहा रही है निखर रहा है शबाब तेरा