ख़ुद अपनी महफ़िल में था पराया कि एक मैं ही था बिन-बुलाया वो जिस की ख़ातिर मैं जी रहा था वो पल भी आख़िर गुज़ार आया अजब था ये इश्तिराक-ए-बाहम मैं एक वहशत वो एक साया निगारिश-ए-जाँ तिरे लिए मैं हज़ार मर्ग-ओ-हयात लाया बदन से अब हो रहा हूँ रुख़्सत अदा नहीं कर सका किराया सराब निकला तिरा तआ'क़ुब मैं ज़िंदगी को गँवा ही आया