ख़ुद ही दिया जलाती हूँ By Ghazal << बस्ती तुझ बिन उजाड़ सी है आप के महरम असरार थे अग़्य... >> ख़ुद ही दिया जलाती हूँ अपनी शाम सजाती हूँ मैं ही अपने ख़्वाबों को अक्सर आग लगाती हूँ शहर-ए-तमन्ना में जा कर कितने फूल खिलाती हूँ तुम भी मुझ से रूठे हो मैं भी कहाँ मनाती हूँ अपनी इस तन्हाई को यादों से बहलाती हूँ Share on: