ख़ुद ही मिल बैठे हो ये कैसी शनासाई हुई दश्त में पहुँचे न घर छोड़ा न रुस्वाई हुई साँस तक लेने नहीं देता था आवाज़ों का शोर जब परिंदे उड़ गए सुनसान तन्हाई हुई ले चला हम को बुलंदी की तरफ़ दरिया का ख़ौफ़ क्या करेंगे हम पहाड़ों पर अगर काई हुई अपनी गहराई की जानिब झुक रहा है आसमाँ ढूँडने निकली है ख़ुद को आँख घबराई हुई रात भर दुनिया रही है तीरगी के सेहर में सुब्ह की पहली किरन आँखों में बीनाई हुई फिर घिरा हूँ हल्क़ा-ए-याराँ में मुजरिम की तरह फिर कही है दास्ताँ सौ बार दोहराई हुई हाथ फैलाऊँ तो किस की सम्त अपना रुख़ करूँ आसमाँ दुश्मन ज़मीं बंदों से उकताई हुई लोग गलियों में निकल आए हैं बच्चों की तरह सर पे जब टूटे सितारे बज़्म-आराई हुई साए की रंगत फ़ज़ा की रौशनी में घुल गई अब के चेहरों पर पड़ी है धूप कजलाई हुई आख़िर-ए-कार अपनी आँखें फोड़ लीं तस्वीर ने सारी दुनिया जब उन आँखों की तमन्नाई हुई आँख से हटते नहीं गुज़री हुई दुनिया के रंग हम ने इन लम्हों को है ज़ंजीर पहनाई हुई