ख़ुद को न मैं गिराऊँ ख़ुद अपनी निगाह से यारब बचाए रखना मुझे इस गुनाह से हर्फ़-ए-तलब ज़बान पे लाया ग़ज़ब किया इक दोस्त आज और गया रस्म-ओ-राह से तश्बीह-ए-मेहर-ओ-माह का ये एहतिमाम है पत्थर उठा के लाए हैं हम उन की राह से छोड़ा जो उस ने ज़ीस्त भी ये कह के उठ गई मैं ने भी आज हाथ उठाया निबाह से समझे न कोई बात तो ये और बात है कुछ तो निगाह कहती थी पैहम निगाह से शायद नहीं ये बात मिरे क़ातिलों को याद क़िस्मत निकाल लाती है यूसुफ़ को चाह से