ख़ुद को तिरे मेआर से घट कर नहीं देखा जो छोड़ गया उस को पलट कर नहीं देखा मेरी तरह तू ने शब-ए-हिज्राँ नहीं काटी मेरी तरह इस तेग़ पे कट कर नहीं देखा तू दश्ना-ए-नफ़रत ही को लहराता रहा है तू ने कभी दुश्मन से लिपट कर नहीं देखा थे कूचा-ए-जानाँ से परे भी कई मंज़र दिल ने कभी इस राह से हट कर नहीं देखा अब याद नहीं मुझ को 'फ़राज़' अपना भी पैकर जिस रोज़ से बिखरा हूँ सिमट कर नहीं देखा