ख़ुद से हुआ जुदा तो मिला मर्तबा तुझे आज़ाद हो के मुझ से मगर क्या मिला तुझे इक लहज़ा अपनी आँख में तू झाँक ले अगर आऊँ नज़र में बिखरा हुआ जा-ब-जा तुझे था मुझ को तेरा फेंका हुआ फूल ही बहुत लफ़्ज़ों का एहतिमाम भी करना पड़ा तुझे ये और बात मैं ने सदाएँ हज़ार दीं आई न दश्त-ए-हौल से इक भी सदा तुझे तू ने भी ख़ुद को मरकज़-ए-आलम समझ लिया लग ही गई ज़माने की आख़िर हवा तुझे क्या क़हर है कि रंगों के इस इज़्दिहाम में जुज़ रंग-ए-ज़र्द और न कुछ भी मिला तुझे नज़रों ने तार तार किया आसमाँ तमाम आई न रास तारों भरी ये रिदा तुझे दाइम रहे सफ़र में तिरा नाक़ा-ए-ख़याल देता रहूँ मैं रोज़ यही बद-दुआ तुझे कहने को चंद गाम था ये अरसा-ए-हयात लेकिन तमाम उम्र ही चलना पड़ा तुझे