ख़ुद से ना-ख़ुश ग़ैर से बेज़ार होना था हुए हम को गर्द-ए-कूच-ओ-बाज़ार होना था हुए जिन की सारी ज़िंदगी दरबार-दारी में कटी उन को रुस्वा बर-सर-ए-दरबार होना था हुए हम में कुछ रिंदान-ए-ख़ुश-औक़ात ऐसे थे जिन्हें जानशीन-ए-जुब्बा-ओ-दस्तार होना था हुए हम कभी शमशीर-ए-जौहर-दार थे लेकिन हमें दस्त-ए-नाहंजार में तलवार होना था हुए अपना घर जी खोल कर ताराज करना था किया अपने हाथों ख़ुद हमें मिस्मार होना था हुए जिन को सारी ज़िंदगी ज़ोम-ए-मसीहाई रहा उन को आख़िर एक दिन बीमार होना था हुए तुम सर-ए-साहिल डुबो बैठे हो 'मोहसिन' कश्तियाँ जिन सफ़ीनों को समुंदर पार होना था हुए