ख़ुदा की क़सम फिर तो क्या ख़ैर होवे हम और तुम अकेले हों और सैर होवे करें ग़ैर का शिकवा किस तौर फिर हम न अपने सिवा जब कोई ग़ैर होवे ज़ियारत करें दिल में काबे की अपने जो मुझ सा कोई साकिन-ए-दैर होवे मिले ऐसे ज़रदार से किस की जूती न तय्यार जिस से तिरा पैर होवे अगर ख़ामुशी को मैं गोयाई लिक्खूँ तो दीवाँ मिरा मंतिक़ुत्तैर होवे हुआ ख़स्म-ए-जाँ 'मुसहफ़ी' वो तो तेरा न इंसाँ को इंसान से बैर होवे