ख़ुदा रखे मिरी दीवानगी को न भूला हूँ न भूलूँगा किसी को न कर रुस्वा मज़ाक-ए-मय-कशी को बुझा ले बे-पिए ही तिश्नगी को मिरे नज़दीक तम्हीद-ए-अलम है ख़ुशी मैं कह नहीं सकता ख़ुशी को लुटा कर काएनात-ए-ज़िंदगानी ब-मुश्किल आज पाया है किसी को सहारा ले रहा हूँ बेबसी का मुकम्मल कर रहा हूँ ज़िंदगी को न समझा है न समझेगा ज़माना ख़ुदी के साथ रब्त-ए-बे-ख़ुदी को दिखा कर इक झलक छुप जाने वाले निगाहें ढूँढती हैं फिर तुझी को ग़ज़ल बे-कैफ़ थी मुद्दत से 'राही' दुआएँ दो 'जिगर' की शाइ'री को