ख़ूँ रुलाती है तिरी हसरत-ए-दीदार मुझे तेरी फ़ुर्क़त ने किया जान से बेज़ार मुझे दीं के क़ाबिल न रहा और न रहा दुनिया का तुझ से ख़ुद काम ने ऐसा किया बे-कार मुझे रूह कहती है कि सौ जान से मैं सदक़े हूँ दिल के पर्दे में नज़र आया है जब यार मुझे जिस की चितवन का तू घायल है मैं उस का ज़ख़्मी देखती क्या है तू ऐ नर्गिस-ए-बीमार मुझे उम्र आख़िर हुई अफ़्सोस बड़ी ग़फ़लत से दम-ए-मुर्दन ही किया मौत ने होशियार मुझे अपने हाथों से फँसा हूँ मैं ख़ुद ही आफ़त में हिर्स-ए-दुनिया ने किया बंदा-ए-अफ़्क़ार मुझे शैख़-जी जाइए मस्जिद में नहीं जाता मैं बुत-ए-काफ़िर ने किया साहिब-ए-ज़ुन्नार मुझे इक झलक दूर से दिखला के ये छीना कैसा सामने आ के दिखा जल्वा-ए-रुख़्सार मुझे रख के तस्वीर-ए-सनम दिल में अबस कहते हो शैख़ हूँ मैं बुत-ए-काफ़िर से सरोकार मुझे ज़ब्त-ए-गिर्या मुझे लाज़िम है कि अग़्यार में याँ बज़्म में ख़ार न कर चश्म-ए-गुहर-बार मुझे बैठ कर कूचा-ए-शह में ये 'जमीला' ने कहा ग़ौस काफ़ी है तिरा साया-ए-दीवार मुझे