ख़ुश-आमदीद कहता गुलों का जहान था इक दश्त-ए-बे-अमाँ मगर दरमियान था मेरी बरहना पुश्त थी कोड़ों से सब्ज़ ओ सुर्ख़ गोरे बदन पे उस के भी नीला निशान था किस ख़ेमा-ए-मलाल में रातें बसर हुईं किस ग़म-कदे पे मेहरबाँ ना-मेहरबान था रौशन अलाव होते ही आया तरंग में वो क़िस्सा-गो ख़ुद अपने में इक दास्तान था इस सम्त गिर्या-ज़ारी ओ काफ़ूर की महक उस सम्त ख़ुश-लिबासी थी और इत्र-दान था