ख़ुश-तालई में शम्स ओ क़मर दोनों एक हैं दिन रात का तो फ़र्क़ है पर दोनों एक हैं ख़्वाही में रोऊँ लख़्त-ए-जिगर ख़्वाह अश्क सिर्फ़ आँखों में मेरी लाल-ओ-गुहर दोनों एक हैं दीजूर में किसे है सपीद ओ सियह का फ़र्क़ ज़िंदानियों को शाम ओ सहर दोनों एक हैं कहने को गरचे हाथ जुदा हैं मिरे वले होने को उस का तौक़ ओ कमर दोनों एक हैं ख़्वाही तू चश्म-ए-चुप से दर आ ख़्वाह रास्त है आने को घर में दिल के ये दर दोनों एक हैं जो क़ुल्ज़ुम-ए-फ़ना का मुसाफ़िर हुआ उसे बाद-ए-मुराद ओ मौज-ए-ख़तर दोनों एक हैं मैं जल रहा हूँ उन के तो हाथों से कुछ न पूछ ऐ 'मुसहफ़ी' ये दीदा-ए-तर दोनों एक हैं