ख़्वाब आसेब से बन निकले मिरी आँखों से लोग ऐसे तो नहीं डरते मिरी आँखों से बंद टूटा जो मिरे दिल में बसी आहों का फूट निकले हैं कई चश्मे मिरी आँखों से रौनक़ें वस्ल की फिर हिज्र की वहशत हाए तुम ने देखे हैं कहाँ मेले मिरी आँखों से कितनी ख़ुशियों से सजाए थे तिरे ख़्वाब मगर अब तो रातों को हैं वो रोते मिरी अंखों से देखने वाला हर इक शख़्स यही कहता है फूल सूखे भी लगें अच्छे मिरी आँखों से ख़ुद को देखूँ तो तिरा अक्स नज़र आता है कितने होने लगे हैं धोके मिरी आँखों से तेरी 'इक़रा' के सभी शे'र हैं बातें तेरी तेरे क़िस्से ही सदा महके मिरी आँखों से