ख़्वाब बुनता रहूँ मैं बिस्तर पर और तकिया करूँ मुक़द्दर पर महव-ए-परवाज़ है ये दिल और मैं जाँ छिड़कता हूँ इस कबूतर पर उम्र-भर देखते रहे साए धूप पड़ती रही मिरे सर पर ख़ुद से मुश्किल हुआ सुख़न करना वक़्त वो आ पड़ा सुख़न-वर पर नींद उड़ने लगी है आँखों से धूल जमने लगी है बिस्तर पर ख़ाक होने से पेश-तर 'ग़ाएर' नक़्श हो जाऊँ क्यूँ न पत्थर पर