ख़्वाब में भी नज़र आ जाए जो घर की सूरत फाड़ खाएँ तिरे दरबाँ सग-ए-दर की सूरत ऐसी बिगड़े न इलाही किसी घर की सूरत वही दीवार की सूरत है जो दर की सूरत पर-शिकस्ता हूँ तह-ए-शाख़ पड़ा रहने दे बाग़बाँ तू मुझे टूटे हुए पर की सूरत छूटता ही नहीं अब अर्श-ए-ख़ुदा बाम-ए-बुताँ देख ली है कहीं नालों ने असर की सूरत घेरे रहता है बगूला मुझे अब एक न एक की है पैदा मिरे सहरा ने भी घर की सूरत जान जाए कि रहे आप के आते आते और से और है अब दर्द-ए-जिगर की सूरत पानी हो जाते हैं आँसू मिरे मोती बन कर वर्ना अच्छी तो न थी उन से गुहर की सूरत कूचा-ए-ज़ुल्फ़ में जाते हुए दिल डरता है हर क़दम पर है नई ख़ौफ़-ओ-ख़तर की सूरत कभी फूला न फुला नख़्ल-ए-तमन्ना अफ़सोस फूल की शक्ल न देखी न समर की सूरत ग़ैर की क़ब्र है गुलशन है न दामन उन का मुझ से देखी नहीं जाती गुल-ए-तर की सूरत चारागर आते हैं तो आँख चुरा जाते हैं ऐसी बिगड़ी है मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर की सूरत आशियाने को चले बाग़ में मुद्दत गुज़री फिरती है आँख में क्यूँ बर्क़-ओ-शरर की सूरत घर से बे-फ़िक्र मैं सहरा में फिरा करता हूँ मेरी आँखों में फिरा करती है घर की सूरत क़ैस भटका था कि सहरा में 'रियाज़' आए नज़र रहनुमा उस के बने आप ख़िज़र की सूरत