ख़्वाबों के महल टूट के गिर जाते हैं अक्सर फिर उन से ही दिन अपने सँवर जाते हैं अक्सर ऐ बाद-ए-सबा उन को ये पैग़ाम मिरा दे क्यूँ छुप के मिरी रह से गुज़र जाते हैं अक्सर दुनिया में हर इक शय है फ़क़त तेरी कमी है नक़्शे तिरी यादों के उभर जाते हैं अक्सर वो नाज़ उठाने के तो क़ाएल ही नहीं हैं फिर हम भी ख़फ़ा हो के बिफर जाते हैं अक्सर 'कौसर' तिरे मय-ख़ाने में साग़र न सुबू है फिर क्यूँ यहाँ मय-नोश ठहर जाते हैं अक्सर