ख़्वाह सच जान मिरी बात को तू ख़्वाह कि झूट सच कहूँ सच को अगर तेरे तो वल्लाह कि झूट सच अगर बोले तू हम से तो भला क्या हो ख़ुशी जी में जी आता है सुन कर तिरा हर गाह कि झूट रास्त गर पूछे तो है रास्त कि तुझ में नहीं मेहर अपनी हट-धर्मी से कहता है तू ऐ माह कि झूट झूट-मूट उन से मैं कुछ मस्लहतन बोलूँगा सच है तू बोल न उठियो दिल-ए-आगाह कि झूट मैं जो पूछा कि तुझे ग़ैरों से है राह तो वो फेर कर मुँह को लगा कहने बे-इकराह कि झूट कोई इतना भी बुरा करता है मेरी ही तरह क्यूँ भला सच है न ये ऐ बुत-ए-दिल-ख़्वाह कि झूट दिल तो वाक़िफ़ है बहुत वाँ से टुक इक सच कहना लावबाली है मिरे यार की दरगाह कि झूट मुझ से जब मिलता है तब छेड़ के पूछे है यही ये 'हसन' सच ही तो रखता है मिरी चाह कि झूट क्या जवाब उस का मिरे पास ब-जुज़ ख़ामोशी या मगर ये कि यही हर गह कहूँ आह कि झूट