इक क़तरा-ए-मा'नी से अफ़्कार का दरिया हो ऐ ज़र्रा-ए-आगाही अब फैल के सहरा हो रफ़्ता रहे वाबस्ता हर हाल दरीचे से फ़र्दा के झरोकों में माज़ी का उजाला हो ऐ बिछड़ी हुई नद्दी किस दश्त में बहती है फिर जानिब-ए-दरिया आ और शामिल-ए-दरिया हो आफ़ाक़-ए-बुलंदी से आवाज़ ये आती है इक अस्र में शामिल हो इक पल से अलाहदा हो लम्हे की हक़ीक़त क्या सदियों के तनाज़ुर में लेकिन जिसे तू चाहे वो रश्क-ए-ज़माना हो इस धूप के राही को अंजाम से कुछ पहले इक ऐसी मसाफ़त दे जिस पर तिरा साया हो ऐसा न हो वो माँगे तस्दीक़ का इक लम्हा और हम ने वही लम्हा महफ़ूज़ न रक्खा हो