ख़याल दिल को है उस गुल से आश्नाई का नहीं सबा को है दा'वा जहाँ-रसाई का कहीं वो कसरत-ए-उश्शाक़ से घमंड में आ डरूँ हूँ मैं कि न दा'वा करे ख़ुदाई का मुझे तो ढो के था ज़ाहिद पर इक निगाह से आज ग़ुरूर क्या हुआ वो तेरी पारसाई का जहाँ में दिल न लगाने का लेवे फिर कोई नाम बयाँ करूँ मैं अगर तेरी बेवफ़ाई का न छोड़ा मार भी खा कर गुज़र गली का तिरी रक़ीब को मिरे दा'वा है बे-हयाई का नहीं ख़याल में लाते वो सल्तनत जम की ग़ुरूर है जिन्हें दर की तिरे गदाई का जफ़ा-ए-यार से मत 'इश्तियाक़' फेर के मुँह ख़याल कीजो कहीं और जुब्बा-साई का