ख़याल-ए-हुस्न में यूँ ज़िंदगी तमाम हुई हसीन सुब्ह हुई और हसीन शाम हुई वक़ार-ए-इश्क़ बस अब सर झुका दे क़दमों पर उधर से तेरे लिए सबक़त-ए-सलाम हुई हर एक अपनी जगह ख़ुश हर इक यही समझा निगाह-ए-ख़ास ब-तर्ज़-ए-निगाह-ए-आम हुई नज़र मिली तो तबस्सुम रहा ख़मोशी पर नज़र फिरी तो ज़रा हिम्मत-ए-कलाम हुई बस अब तो तुम ने मोहब्बत का ले लिया बदला मुआफ़ करना जो तकलीफ़-ए-इंतिक़ाम हुई है देखने ही का वक़्फ़ा जिसे समझते हैं 'रज़ा' वो धूप चढ़ी दिन ढला वो शाम हुई