ख़याल-ए-जानाँ उतर रहा है दिल-ए-हज़ीं पर है आसमाँ का नुज़ूल या'नी मिरी ज़मीं पर मैं लाख रूठूँ उसे मनाने का ढब पता है बस एक बोसा हसीं लबों का मिरी जबीं पर जहाँ पे हम दोनों पिछली सर्दी में मिल चुके हैं रक्खे हैं अब भी गुलाब सूखे हुए वहीं पर मैं उस की ख़ातिर जुनूँ की हद से गुज़र गया हूँ ख़ुदा की बंदी है अब भी क़ाएम नहीं नहीं पर न जाने कितनी हसीन आँखें मिरी तरफ़ हैं मगर ये आँखें टिकी हैं उस एक नाज़नीं पर हमारी ग़ज़लों में यूँ तो सब कुछ ही नॉर्मल है बस आँसुओं के निशाँ मिलेंगे कहीं कहीं पर न शोहरतों की बुलंदियों पर गुमान करना पलट के आना पड़ेगा इक दिन तुम्हें ज़मीं पर