खिड़की से महताब न देखो ऐसे भी तुम ख़्वाब न देखो डूब रहे सूरज में यारो दिन की आब-ओ-ताब न देखो हरजाई हैं लोग यहाँ के इस बस्ती के ख़्वाब न देखो अंदर से हम टूट रहे हैं बाहर के अस्बाब न देखो फ़न देखो बस मल्लाहों का दरिया के सैलाब न देखो सच्चे सपने दो आँखों को झूटे हों वो ख़्वाब न देखो दीवाना हूँ दीवाना मैं तुम मेरे आदाब न देखो ग़म में भी हम ख़ुश रहते हैं ग़म सहने की ताब न देखो देखो अपने ऐब 'ज़फ़र'-जी कैसे हैं अहबाब न देखो