खींच लाया तुझे एहसास-ए-तहफ़्फ़ुज़ मुझ तक हम-सफ़र होने का तेरा भी इरादा कब था दरगुज़र करती रही तेरी ख़ताएँ बरसों मेरे जज़्बात ओ ख़यालात तू समझा कब था मौज-दर-मौज भँवर खींच रहा था मुझ को मेरी कश्ती के लिए कोई किनारा कब था ज़ाहिरन साथ वो मेरे था मगर आँखों से बद-गुमानी के नक़ाबों को उतारा कब था तुझ को मालूम नहीं अपनी वफ़ाओं के एवज़ जान-ए-जाँ मैं ने जो चाहा था ज़ियादा कब था दो किनारों को मिलाया था फ़क़त लहरों ने हम अगर उस के न थे वो भी हमारा कब था उस ने मेरी ही रिफ़ाक़त को बनाया मुल्ज़िम मैं अगर भीड़ में थी वो भी अकेला कब था वो तिरा अहद-ए-वफ़ा याद है अब तक 'मीता' भूल बैठी हूँ मोहब्बत का ज़माना कब था