खोए न किस तरह से तिरा ए'तिबार झूट इक सच अगर ज़बान पे है तो हज़ार छूट करता है आदमी को बहुत बे-वक़ार झूट छुड़वा दे मुझ से ऐ मिरे परवरदिगार झूट हक़ हक़ न किस तरह से कहूँ उन से हाल-ए-दिल सच का तो ए'तिबार नहीं दरकिनार झूट छुपता है उस सनम से कहीं इश्क़-ए-साख़्ता ईसा से कोई ख़ाक बताए बुख़ार झूट मैं नक़्श-ए-पा-ए-ग़ैर को पहचानता हूँ ख़ूब खाओ न मेरे सर की क़सम ऐ निगार झूट दिल की तड़प से रात को बिजली भी मात थी कहता नहीं है यार तिरा बे-क़रार झूट क्यूँकर यक़ीं हो तेरे दहान-ओ-कमर का यार साबित किया है मैं ने तिरा लाख बार झूट छोड़ूँगा मैं रिकाब न हो कर ग़ुबार भी इस में समझ ज़रा भी न ओ शहसवार झूट क्या फ़ाएदा अगर हो कोई बे-छुरी हलाल करते हो क्यों बहाना-ए-सैद-ओ-शिकार झूट हक़ हक़ रहे ज़बान पे मंसूर की तरह बोले न दार पर भी तिरा जाँ-निसार झूट आशिक़ को रोते देख के वा'दा वफ़ा किया छोड़ आती आज जा के वो दरिया के पार झूट अल्लाह जानता है जो बंदे बुतों के हैं बोलें न मर के भी वो मियान-ए-मज़ार झूट सच-मुच किया जो वादा-ए-वस्ल आज यार ने मुँह से निकल गया मिरे बे-इख़्तियार झूट सच तो ये है कि ख़ौफ़-ए-जुनूँ से हवा हो रूह सुन लूँ जो आमद-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार झूट लाना यक़ीं न 'कैफ़' के अक़वाल-ओ-फ़े'ल का गुफ़्तार इस की झूटी है सब कारोबार झूट