खोल दी है ज़ुल्फ़ किस ने फूल से रुख़्सार पर छा गई काली घटा सी आन कर गुलज़ार पर क्या ही अफ़्शाँ है जबीन ओ अबरू-ए-ख़मदार पर है चराग़ाँ आज काबे के दर ओ दीवार पर नक़्श-ए-पा पंच-शाख़ा क़बर पर रौशन करो मर गया हूँ मैं तुम्हारी गरमी-ए-रफ़्तार पर चश्म-ए-बद दूर आज है ये कौन गुल-रू झाँकता चश्म-ए-नर्गिस का है आलम रौज़न-ए-दीवार पर ना-तवाँ का भला किस मुँह से मैं शिकवा करूँ ख़ाल है याँ महर ख़ामोश लब-ए-गुफ़्तार पर हम अज़ल से इंतिज़ार-ए-यार में सोए नहीं आफ़रीं कहिए हमारे दीदा-ए-बेदार पर कुफ़्र अपना ऐन दीं-दारी है गर समझे कोई इज्तिमा-ए-सुबहा याँ मौक़ूफ़ है ज़ुन्नार पर ठोकरें खाएगा इक दिन सर-कशी इतनी न कर ओ सर-ए-बे-मग़ज़ क्यूँ भूला है इस दस्तार पर ज़ुल्फ़ उस की अपने हक़ में देखिए कहती ही क्या है हमारा फ़ैसला अब तो ज़बान-ए-मार पर गर चमन में हम से बे-बर्गों को जा देती नहीं ख़ार की मानिंद बिठला दें सर-ए-दीवार पर है अगर इरफ़ाँ का तालिब ख़ाकसारी कर शिआर देखते हैं आइने अक्सर लगा दीवार पर अबरू-ओ-मिज़्गाँ से उस के देखें दिल क्यूँकर बचे अब तो नौबत आ गई है तीर और तलवार पर इंतिहा-ए-इश्क़ में दी जान मैं ने इस लिए लाला बा-सद दाग़ उगता है मिरे कोहसार पर राब्ता गर ग़ैर से हो यार को चाहूँ मैं मैं न बुलबुल हूँ कि मरता हूँ गुल-ए-बे-ए-ख़ार पर दिल जला ऐसा हूँ मेरा नाम ले बैठा जो वो पड़ गए छाले ज़बान-ए-मुर्ग़-ए-आतिश-ए-ख़्वार पर उठ के बुत-ख़ाने से मस्जिद को अगर जाएगा तू सैकड़ों टूटेंगी तस्बीहें तिरे ज़ुन्नार पर हैफ़ कू-ए-यार तक पहुँची न मेरी उस्तुख़्वाँ मुद्दतों आ कर हुमा बैठा रहा दीवार पर सूख जाएँ गर हमारी आबलों की छागलें पास से काँटे नज़र आएँ ज़बान-ए-ख़ार पर ब'अद मुर्दन भी है बाक़ी मेरी नालों का असर तार-ए-मुतरिब का है आलम हर कफ़न की तार पर तेरी आब-ए-तेग़ से ज़ालिम जो हो तूफ़ान बपा मौत तड़पी मिस्ल-ए-माही गुम्बद-ए-दव्वार पर ख़त उसे इतने लिखे मैं ने कि वाँ भर जवाब बैठे रहते हैं कबूतर सैकड़ों दीवार पर हश्र तक मुमकिन नहीं अब चमकी तेग़-ए-आफ़्ताब बाड़ा रखवाता है ज़ालिम मग़रिबी तलवार पर कफ़्श-ए-पा की गुल दिखा कर हँस के यूँ कहने लगा सैर को क्यूँ जाऊँ गुलशन है मिरे बेज़ार पर देखियो ज़िद मेरे मुर्ग़-ए-नामा-बर के वास्ते क़ैंचियाँ लगवाईं हैं बे-रहम ने दीवार पर यार को मालूम होता है हिज्र में सोया नहीं ख़त लिखूँ गोया बयाज़-ए-दीदा-ए-बेदार पर