ख़ुदा से रोज़-ए-अज़ल किस ने इख़्तिलाफ़ किया वो आदमी तो न था जिस ने इंहिराफ़ किया मैं क्या बताऊँ कि क़ल्ब-ओ-नज़र पे क्या गुज़री किरन ने क़तरा-ए-शबनम में जब शिगाफ़ किया वही तो हूँ मैं कि जिस के वजूद से पहले ख़ुद अपने रब से फ़रिश्तों ने इख़्तिलाफ़ किया उसी के रहम-ओ-करम पर है आक़िबत मेरी न जिस ने पहली ख़ता को मिरी मुआ'फ़ किया अज़ल से आलम-ए-मौजूद तक सफ़र कर के ख़ुद अपने जिस्म के हुजरे में एतकाफ़ किया ख़ुदा-गवाह कि मैं ने ख़ुद-आगही के लिए समझ के ख़ुद को हरम उम्र भर तवाफ़ किया रहेंगे क़स्र-ए-अक़ाएद न फ़लसफ़ों के महल जो मैं ने अपनी हक़ीक़त का इंकिशाफ़ किया